Friday, September 20, 2024
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19वीं सदी की दस भारतीय महिलाएं, जिन्होंने बदला देश का इतिहास

भारत के इतिहास में ऐसी-ऐसी देवियों की गाथा छुपी हुई है,जिन्होंने देश का इतिहास बदल दिया। जिस दौर में महिलाओं को घरों में रहने के लिए कहा जाता था। उस समय वे अपनी बंदिशों से निकलकर देश के उत्थान में भागीदार बनी। ये देवियां आज हमारे बीच तो नहीं पर इनके कारनामें आज भी सुनाई देते हैं। हर महिला के जीवन की प्रेरणा स्त्रोत बनी इन महान महिलाओं को थोड़ा और करीब से जनाते हैं, और इनके कर्तव्यों से कुछ सीख लेते हैं…

रानी अहिल्याबाई होल्कर

अपने परिवार के 27 सदस्यों को खोने के बाद भी इस नारी शासिका ने प्रजा औऱ सत्ता की बागडोर को बखूबी संभाला। शिव भक्त अहिल्याबाई होल्कर का जन्म 31 मई सन् 1725 में हुआ था। हालांकि इनके पिता मानकोजी शिंदे एक साधारण व्यक्ति थे, लेकिन इनका विवाह इंदौर के संस्थापक मल्हार राव होल्कर के पुत्र खंडेराव के साथ हुआ था। ऐसे में अहिल्याबाई अपने ससुर से राजकाज की शिक्षा लिया करती थीं। जिसने उन्हें आगे चलकर एक शासिका के रूप में प्रसिद्ध कर दिया। इन्होंने अपने शासनकाल में प्रजा के हित के लिए हमेशा कार्य किया। तो वहीं अहिल्याबाई होल्कर ने सदैव अपने शासन की रक्षा के लिए सेना को अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित रखा।

बच्चों और महिलाओं की स्थिति को लेकर हमेशा चिंतन करने वाली महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने सदैव नारी समाज के उत्थान के लिए कार्य किया। साथ ही धार्मिक संस्कारों से ओत-प्रोत रानी अहिल्याबाई ने देश के विभिन्न स्थानों और नगरों में मंदिरों, धर्मशालाओं और अन्नसत्रों का निर्माण करवाया। साथ ही यातायात के विकास के लिए कई जगहों पर सड़कों और रास्तों का निर्मांण कराया। इतना ही नहीं 1777 में विश्व प्रसिद्ध काशी विश्वनाथ मंदिर की स्थापना का श्रेय भी महारानी अहिल्याबाई होल्कर को दिया जाता है। लेकिन राज्य का भार और अपनों से बिछड़ने का दुख उनसे अधिक सहन नहीं हो पाया, जिसके चलते 13 अगस्त 1795 को उऩकी म़ृत्यु हो गई।

सावित्री बाई फूले

भारत की प्रथम शिक्षिका और समाज सुधारिका के रूप में जाने जानी वाली सावित्री बाई फूले का जन्म 3 जनवरी 1831 को हुआ था।जिन्होंने अपने पति ज्योतिराव गोविंदाराव फूले के साथ महिला अधिकारों के प्रति आवाज बुलंद की। साथ ही इन्होंने बालिकाओं के लिए अलग विद्यालय की स्थापना का श्रेय दिया जाता है। इनके पिता खन्दोजी नेवसे और माता लक्ष्मी थी। तो वहीं गुरू महात्मा ज्योतिबा के सान्निध्य में सावित्री बाई ने विधवा विवाह कराना, छुआछुत मिटाना, दलित महिलाओं को शिक्षित करना अपने जीवन का एकमात्र उद्देश्य बना लिया था।

इतना ही नहीं स्कूल जाते वक्त जब लोग उनपर कीचड़ और पत्थर फेंका करते थे तो वह स्कूल पहुंचने के बाद अपनी साड़ी बदल लिया करती थी। ऐसे में हमें उऩके चरित्र से निरंतर प्रयासरत रहने की प्रेरणा भी मिलती है। तो वहीं वह एक आदर्श कवियत्री के रूप में भी जानी जाती हैं। मानवता का संदेश देने वाली सावित्री बाई फूले का निधन प्लेग मरीजों की देखभाल के दौरान 10 मार्च 1897 को हो गया था। लेकिन उनके कार्य़ और विचार आज भी महिलाओं को उनके हक और अधिकारों के लिए प्रेरित करते हैं।

इस प्रकार हमारे इतिहास में कई ऐसी नारियों के उदाहरण हैं, जिन्होंने सिर्फ नारी समाज के लिए ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व को अपने जीवनकाल से एक गहरा संदेश दिया है कि मानवता से बढ़कर कोई धर्म नही होता है।

दुर्गाबाई देशमुख


भारत की स्वतंत्रता सेनानी और स्वतंत्र भारत के पहले वित्तमंत्री चिंतामणराव देशमुख की धर्मपत्नी दुर्गाबाई देशमुख किसी परिचय की मोहताज नहीं। मात्र 14 साल की उम्र में ही अपने दमदार भाषण के दम पर जिन्होंने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को भी सोचने पर मजबूर कर दिया था। ऐसी विलक्षण प्रतिभा की धनी दुर्गाबाई देशमुख का जन्म 15 जुलाई 1909 को आंध्र प्रदेश के राजमुंदरी जिले के काकीनाडा में हुआ था।

बचपन में ही पिता श्री रामाराव का साया सिर से उठने के बाद अपनी माता कृष्णवेनम्मा की परवरिश में वह पली बढ़ी। और दुर्गाबाई के मन में देशप्रेम और समाजसेवा के संस्कार बचपन से ही पड़े थे। जिनके बल पर उन्होंने नमक सत्याग्रह में मशहूर नेता टी. प्रकाशम के साथ भाग लिया था, इस दौरान इन्हें एक वर्ष की जेल भी हो गई थी। लेकिन दुर्गाबाई देशमुख ने हार न मानी। बल्कि जेल से बाहर आते ही उन्होंने पुनं आंदोलन में सक्रियता दिखाई।

इतना ही नहीं दुर्गाबाई देशमुख ने आंध्र प्रदेश में नारियों के उत्थान के लिए कई संस्थाओं और प्रशिक्षण केद्रों की स्थापना करवाई। साथ ही आजादी के बाद योजना आयोग द्वारा प्रकाशित भारत में समाज सेवा का विश्वकोश भी इन्हीं के निर्देशन में तैयार हुआ था। साथ ही इऩ्होंने कानून की पढ़ाई कर महिलाओं के हक के लिए काफी लड़ाई लड़ी थी। तो वहीं साक्षरता के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य़ करने के लिए दुर्गाबाई देशमुख को यूनेस्को पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। 9 मई 1981 को दुर्गाबाई देशमुख का निधन हो गया, लेकिन उनके द्वारा स्थापित किए गए परिवारिक न्यायालय कई परिवारों और स्त्रियों, बच्चों के हक के लिए कार्य़ कर रहे हैं।

कैप्टन लक्ष्मी सहगल

24 अक्टूबर 1914 को मद्रास (चेन्नई) में जन्मी लक्ष्मी सहगल राजनीति में किसी भी बड़े पद पर रहकर कार्य़ कर सकती थी। क्योंकि उनके पिता डॉ. एस स्वामिनाथन हाई कोर्ट के वकील थे और मां एवी अम्मुकुट्टी स्वतंत्रता सेनानी थी। लेकिन उन्होंने सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज का हिस्सा बनना स्वीकार किया। और रानी झांसी रेजिमेंट में लक्ष्मी सहगल काफी सक्रिय रही। इस दौरान उन्हें कर्नल की जिम्मेदारी सौंपी गई। लेकिन लोग उन्हें कैप्टन लक्ष्मी सहगल के नाम से जानते है।

एमबीबीएस होने के कारण लक्ष्मी सहगल ने दिसंबर 1984 में हुए भोपाल गैस कांड में मरीजों और पीड़ितों को चिकित्सीय सहायता प्रदान की। इतना ही नहीं राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार आंदोलन में भी लक्ष्मी सहगल ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। लेकिन 19 जुलाई 2012 को कार्डिया अटैक आने की वजह से लक्ष्मी सहगल की मौत हो गई। जिनकी याद में कानपुर में लक्ष्मी सहगल इंटरनेशनल एयरपोर्ट बनाया गया है।

सरोजिनी नायडू

भारत की कोकिला के नाम से प्रसिद्ध सरोजिनी नायडू का जन्म 13 फरवरी 1879 को हैदराबाद में हुआ था। इनके पिता अघोरनाथ चट्टोपाध्याय एक वैज्ञानिक थे। और सरोजिनी नायडू आगे चलकर एक सफल कवियत्री के रूप में जानी गई। बात करें राजनीतिक जीवन की तो सरोजिनी नायडू गोपालकृष्ण गोखले को अपना राजनीतिक पिता मानती थी। साथ ही सरोजिनी नायडू राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित थी, जिसके चलते उन्होंने गांधी जी का दक्षिण अफ्रीका में काफी सहयोग किया।

इसके अलावा सरोजिनी नायडू ने भारत की स्वतंत्रता के लिए विभिन्न आंदोलनों में भाग लिया। साथ ही जलियांवाला बाग हत्याकांड से दुखी होकर उन्होंने कैसर ए हिन्द सम्मान लौटा दिया था। तो वहीं सरोजिनी नायडू ने भारतीय समाज में फैली कुरीतियों के खिलाफ भारतीय महिलाओं को हमेशा जागृत किया। जिसके चलते वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन की प्रथम भारतीय महिला अध्यक्ष बनीं। इस प्रकार सरोजिनी नायडू एक कुशल राजनेता होने के साथ-साथ एक अच्छी लेखिका भी थी। आपको बता दें कि मात्र 13 वर्ष की उम्र में उन्होंने 1300 पंक्तियों की कविता द लेडी ऑफ लेक लिख डाली थी। लेकिन 2 मार्च 1949 को सरोजिनी नायडू हमारे बीच से चली गई।

कादम्बिनी गांगुली

18 जुलाई 1961 को बिहार के भागलपुर में जन्मी कादम्बिनी गांगुली चिकित्सा शास्त्र की डिग्री लेने वाली प्रथम महिला थी। इनके पिता बृजकिशोर बासु ने अपनी पुत्री की शिक्षा पर हमेशा ध्यान दिया। ब्रिटिश समय में महिलाओं के लिए उच्च शिक्षा भले ही मुश्किलों भरी रही हो लेकिन उसी समय में कादम्बिनी ने सिर्फ भारत ही नहीं अपितु साउथ एशिया की पहली चिकित्सा डिग्री धारक महिला के रूप में विश्व प्रसिद्ध हुई।

इतना ही नहीं राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सत्याग्रह आंदोलन के लिए कादम्बिनी ने काफी चंदा भी इक्ट्टठा किया था। तो वहीं बंकिम चंद्र चटर्जी की रचनाओं से प्रभावित होकर कादम्बिनी ने सामाजिक कार्यों में सक्रियता दिखाई। जिसके चलते इन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में सबसे पहली भाषण देने वाली महिला का गौरव प्राप्त है। तो वहीं कादम्बिनी ने कोयला खादानों में कार्य करने वाली महिलाओं के लिए भी आवाज उठाई। लेकिन 3 अक्टूबर 1923 को कलकत्ता में कादम्बिनी हमारे बीच से चली गई। लेकिन देश के प्रति उनका लगाव हर भारतीय के लिए एक प्रेरणा है।

मैडम भीखाजी कामा

भारत में ब्रिटिश शासन जारी रहना मानवता के नाम पर कलंक है। एक महान् देश भारत के हितों को इससे क्षति पहुंच रही है। आगे बढ़ो हम हिंदुस्तानी है और हिंदुस्तान हिंदुस्तानियों का है।

ऐसे विचारों से ओत प्रोत भारतीय मूल की पारसी नागरिक भीखाजी कामा का जन्म 24 सिंतबर 1861 को बंबई (मुम्बई) में हुआ था। भीखाजी कामा को जर्मनी के स्टटगार्ट नगर में सातवीं अंतरराष्ट्रीय कांग्रेस के दौरान भारतीय झंडा लहराने का श्रेय दिया जाता है। एक धनी परिवार में जन्म लेने के बावजूद भीखाजी कामा ने सुखी जीवन की अपनी इच्छाओं का त्याग कर देश को अंग्रेजी शासन से आजाद करने में बीता दिया। इसलिए इन्हें भारतीय राष्ट्रीयता की महान पुजारिन कहा जाता है। ये जहां गई इन्होंने वहां जाकर भारतीय स्वाधीनता की अलख जलाई, और स्वराज के लिए लोगों को एकजुट किया। लेकिन असीम सेवा भाव के चलते प्लेग रोगियों की सेवा करते करते 13 अगस्त 1936 को 73 वर्ष की आयु में हमने एक महान स्वतंत्रता सेनानी को खो दिया।

सुचेता कृपलानी

25 जून 1908 को पंजाब के अंबाला शहर में जन्मी सुचेता कृपलानी भारत की पहली महिला मुख्यमंत्री बनी थी। उनके राजनीतिक जीवन का सफर आसान न था, क्योंकि पिता की मृत्यू के बाद उनपर घऱ परिवार की जिम्मेदारी आ गई थी। लेकिन भारत के स्वतंत्र होने के बाद वह राजनीति में सक्रिय हो गई। उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में इतिहास की प्रवक्ता के तौर पर भी कार्य़ किया था। इतना ही नहीं कांग्रेस से अलग होने के बाद सुचेता ने अपनी किसान मजदूर प्रजा पार्टी भी बनाई और साल 1962 में उन्होंने विधानसभा का चुनाव लड़ा और वह उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बन गई। सुचेता उन महिलाओं में से है जो गांधी जी के काफी करीब रही और कई आंदोलनों में उन्होंने भाग लिया और कई बार जेल की सजा भी काटी। लेकिन 1 दिसंबर 1974 को इनका देहासवान हो गया।

रानी कित्तूर चेनम्मा

भारत के कर्नाटक राज्य में रानी चेनम्मा का नान बड़े ही अदब से लिया जाता है। कर्नाटक के बेलगाम के पास ककती नामक गांव में जन्मी रानी चेनम्मा ने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से पहले ही अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे। घुड़सवारी, तलवारबाजी और तीरांदाजी में परांगत रानी चेनम्मा ने अकेले ही अंग्रेजी शासकों के प्रति विद्रोह की घोषणा कर दी थी। लेकिन वह अधिक समय तक अंग्रेजों से लोहा नहीं संभाल पाई। और 21 फरवरी 1829 को अंग्रेजों से लड़ाई के दौरान उनकी मृत्यू हो गई।

डॉक्टर आनंदीबाई जोशी 

पुणे के एक जमींदार परिवार में 31 मार्च 1865 को आनंदी बेन जोशी का जन्म हुआ था। 14 साल की उम्र में ही आनंदी मां बन गईं। लेकिन उनका नवजात बच्चा किसी गंभीर बीमारी से पीड़ित था, जिसकी वजह से जन्म के 10 दिन बाद ही उसकी मौत हो गई। बच्चे को खोने का दर्द आनंदी के लिए असहनीय था लेकिन उन्हें ठान ली कि किसी भी बच्चे को बीमारी से नहीं मरने देंगी। आनंदी ने इसी लक्ष्य को लेते हुए डॉक्टर बनने की ठान ली और अपनी इच्छा पति को बताई। उनके पति ने आनंदी का समर्थन किया। लेकिन समाज और खुद के परिवार वालों ने आनंदी की आलोचना करना शुरू कर दिया। इन सब के बावजूद गोपालराव ने आनंदी को मिशनरी स्कूल भेजकर पढ़ाई कराई। फिर कलकत्ता से उन्होंने संस्कृत और अंग्रेजी की पढ़ाई की।

पेंसिल्वेनिया के महिला मेडिकल कॉलेज में आनंदी ने दाखिला लिया। इसके लिए उन्होंने अपने सारे गहने बेच दिए। कुछ लोगों ने आनंदी के इस कदम में उनका साथ देते हुए सहायता के लिए 200 रुपये की मदद की। आनंदी ने मात्र 19 साल की उम्र में एमडी की डिग्री हासिल की। वह पहली भारतीय महिला थीं, जिसे यह डिग्री मिली। बाद में आनंदी बाई भारत लौटी और कोल्हापुर रियासत के अल्बर्ट एडवर्ड अस्पताल के महिला वार्ड में प्रभारी चिकित्सक पद पर नियुक्त हुईं। लेकिन डाॅक्टरी की प्रैक्टिस के दौरान वह टीबी की बीमारी की शिकार हो गईं। 26 फरवरी 1887 में महज 22 साल की उम्र में बीमारी के कारण आनंदीबाई का निधन हो गया।

 

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