महाशिवरात्रि, शिव पार्वती की आराधना का पर्व, जो हमें शांति देता है, संयम रखना सीखाता है और शक्ति प्रदान करता है। शिव की पूजा के साथ मां पार्वती की पूजा का खास महत्व है इस दिन। शिव हमारे सब कुछ हैं, तो मां से हमें शक्ति मिलती है। शिव-पार्वती का अर्धनारेश्वर रुप ही है जो हमें जीवन में समता रखना सीखाता है। समता अर्थात् संतुलन, बराबरी। गृहस्थ जीवन को सबसे बड़ा तप माना गया है, क्योंकि सन्यास जीवन के लिए सब त्याग करना आसान होता है, पर त्याग करते हुए गृहस्थी को बनाने रखना सबसा बड़ा तप माना गया है। इसी गृहस्थ जीवन की परिभाषा शिव-पार्वती ने बहुत ही अच्छे से प्रस्तुत की है। तो आज महाशिवरात्रि पर्व पर शिव-पार्वती की आराधना के साथ उनके किए वर्णन पर गौर करते हैं, क्योंकि आज हर घर में गृहस्थी को चलाने वाले कई अड़चनों का सामना कर रहे हैं, जिस वजह से उनमें अनबन होती है, परंतु यही तो है सच्चा तप, जिसे हमारे ईष्ट देव पहले ही समझा चुके हैं..
शिव जिन्हें हम भोलेबाबा कहते हैं, क्योंकि उन्हें किसी प्रकार के महंगे भोग की कामना नहीं, ना किसी कीमती चीज की आवश्यकता। वो तो बस कपाल पर चंद्रमा, जटा पर गांगा, गले में सर्प और बंद नेत्रों से बाघ की खाल पर बैठे तप करते हैं। और तप का असर भी ऐसा की कंठ में विष रोक लिया उन्होंने। हम सभी ने अक्सर किस्सों-कहानियों में सुना है की शिव के क्रोध से बड़ी विपदा कोई भी नहीं है, पर यहां गौर किया जाए। शिव के क्रोध में भी एक सच्चाई रही है, कोई ना कोई सीख रही है। जब सती माता ने यज्ञ में स्वंय को ध्वस्त कर दिया तो शिव उनके शरीर को लिए-लिए क्रोध में घूमने लगे। यहां उनका उनकी जीवनसंगनि के प्रति अद्भुत प्रेम था, जिसके वियोग में वे सब भूल कर क्रोध दिखा रहे थे। शिव ने इसके जरिए अपनी अर्धांगिनी के महत्व को प्रकट किया।
अर्धनारेश्व शिव का वह रुप, जो गृहस्थ जीवन के संतुलन को है दर्शाता
शिव-पार्वती एक ऐसा परिवार है जो हमें यह सीखाता है कि जीवन रुपी इस वाहन को चलाने में पुरुष और नारी दोनों की बराबर की भागीदारी होती है। इस भागीदारी में किसी पर किसी प्रकार का भार नहीं डाला जाता है, ना ही किसी कार्य के लिए उसे बाध्य होना पड़ता है। ये बस जीवन यापन करने का सरल आचरण होता है। माता पार्वती शिव के सम्मान की रक्षा करती हैं और शिव भी उनके विनम्र स्वाभाव के आगे झुकते हैं। उनके प्रेम में इतने लीन हो जाते हैं कि, सती के ना होने पर वे अपने बनाएं प्रकृति स्वाभाव को ही भूल बैठते हैं। उनके ना होने पर वियोग करते हैं, क्रोध करते हैं, और पुन: पार्वती जन्म में उन्हें प्राप्त करते हैं। स्त्री-पुरुष के इस प्रेम रुप को जीतना जाना जाएं उतना ही कम है। भगवान शिव पर्वत पर ध्यान करने वाले साधु हैं, पर माता की इच्छा पर उन्हें महल तैयार करवाकर भी देते हैं, यही तो है सम्मान, त्याग, स्नेह की परिभाषा। कुछ ऐसा कर जाना जिसकी कामना तो नहीं पर अपने साथी की भावनाओं की कद्र की जाएं।
शिव परिवार की तरह ही यदि जीवन की इस रीत को हम समझ लें तो किसी प्रकार का तनाव ना रहे। हां, कठिनाईयां आएंगी, परंतु यदि संतुलन होगा तो उनसे उबरना आसान हो जाएगा। आखिर तप भी तो यही सीखाता है, एक तपस्वी, अपनी तपस्या में आयी हर अड़चन को भूल सिर्फ ध्यान में लगा रहता है। जिसके परिणाम स्वरुप उसे इच्छा की प्राप्ति होती है। तो गृहस्थी में भी यदि अहंकार नाम की अड़चन को पार कर लिया जाए तो नतीजे सुंदर दिखाई देने लगेंगे। शिव ने अपने आधे भाग में पार्वती को समाया है, जो यह दर्शाता है की पुरुष और नारी दोनों ही हर कार्य में सक्षम हैं, समय आने पर विभागों में बदलाब भी होते रहते हैं। परंतु जिम्मेदारी यानी की तप से बचकर नहीं निकलना चाहिए, तप से स्वंय को पाया जा सकता है तो सामने वाले को भी आसानी से जीता जा सकता है। जब भगवान क्रोध में रहे तो देवी ने उन्हें शांत किया और जब देवी क्रोध में रहीं तो भगवान ने उन्हें शांत किया। बस इतनी सी ही है यह गृहस्थ रुपी जीवन की यात्रा।
अपने जीवनसाथी को सम्मान देने की आवश्यकता है या नहीं? इसके महत्व को इस बात से समझे की हमें कैसै आचरण की चाह होती है सामने वाले से। क्या एक पर किए जा रहे उपहास स्वयं पर सहे जा सकेंगे? क्या इन उपहासों से बड़ा होता है जीवन ? जिसे व्यर्थ क्रोध में किया जाएं.. क्या शिशु की देखभाल से बड़ा होता है हट करना? क्या जिम्मेदारियों से मुक्त होना होता है तप करना? शिव वो योगी है, जिन्होंने हमें जीवन जीने का बहुत ही सरल तरीका दिखाया है, परंतु मनुष्य सिर्फ उनकी पूजा-अर्चना का ख्याल रख रहा है, उन्हें पाने के लिए मंदिर-मंदिर भटक रहा हैं। परंतु यदि उनके एक भी गुणों को स्वंय में समाहित कर लिया जाए तो शिव को पाने जैसा ही होगा।
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