देवउठनी एकादशी या प्रबोधिनी एकादशी के बाद से ही हिंदू धर्म में सभी शुभ कार्य शुरू हो जाते हैं, जैसे कि विवाह, मुंडन और उपनयन संस्कार आदि। कार्तिक माह में मनाई जाने वाली देवउठनी एकादशी या प्रबोधिनी एकादशी के दिन तुलसी विवाह करने का भी विधान है।इस वर्ष 4 नवंबर को ये मनाई जा रही है, इस दिन दान, पुण्य आदि का भी विशेष फल प्राप्त होता है।
कार्तिक शुक्ल पक्ष की ये एकादशी, देवउठनी एकादशी के नाम से विख्यात है। यह चतुर्मास की चार महीने की अवधि के अंत का प्रतीक है, इन चार महीने में भगवान विष्णु योगनिंद्रा में होते है। ऐसा माना जाता है कि विष्णु शयनी एकादशी को सोते हैं और प्रबोधिनी एकादशी पर जागते हैं। इस प्रकार इस दिन को प्रबोधिनी एकादशी का नाम दिया गया है। चातुर्मास में हिन्दू धर्म में शुभ कार्य का आरम्भ निषिद्ध होता है। प्रबोधिनी एकादशी के बाद कार्तिक पूर्णिमा आती है, जिसे देव दिवाली या देवताओं की दिवाली के रूप में मनाया जाता है।
कार्तिक शुक्ल पक्ष एकादशी व्रत का फल सौ राजसूय यज्ञ तथा एक सहस्र अश्वमेध यज्ञ के फल के बराबर होता है। इस एकादशी के दिन भक्त श्रद्धा के साथ जो कुछ भी जप-तप और स्नान-दान करते हैं, वह सब अक्षय फलदायक हो जाता है। इस दिन भगवान विष्णु की पूजा की जाती है। रात्रि जागरण तथा व्रत रखने से सारे पाप नष्ट होते हैं । श्रीहरि को तुलसी प्राण प्रिय हैं, इसलिए जागरण के बाद सर्वप्रथम तुलसी के साथ उनके विवाह का आयोजन किया जाता है। इसके पश्चात मांगलिक कार्य दोबारा शुरू हो जाते हैं।
तुलसी विवाह का महत्व और कथा
श्रीविष्णु व तुलसी के इस विवाह के पीछे एक पौराणिक कथा है। श्रीमद्भागवत के अनुसार प्राचीन काल में जलंधर नाम का एक महाशक्तिशाली असुर था। वह श्रीहरि की परमभक्त अपनी पतिव्रता पत्नी वृंदा के तपबल के कारण अजेय बना हुआ था। तब ब्रह्मा जी के सुझाव पर सभी देवता भगवान विष्णु के पास पहुंचे और उनसे जलंधर के आतंक से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। तब लोकमंगल के लिए श्रीहरि जलंधर का वेश बनाकर वृंदा के निकट गए। ज्यों ही वृंदा का ध्यान पूजा से भंग हुआ, युद्ध में जलंधर की मृत्यु हो गई।
जब वृंदा को वास्तविकता का पता चला तो क्रोध से भरकर उन्होंने भगवान विष्णु को पाषाण हो जाने का शाप दिया और प्राण त्यागने लगी। यह देख अपने वास्तविक रूप में आकर श्रीहरि ने वृंदा को उसके पति के अन्याय व अत्याचारों से अवगत कराते हुए बताया कि किस तरह वह भी परोक्ष रूप से अपने पति के अत्याचारों की सहभागी बनी है। पूरी बात सुनकर वृंदा को अपनी भूल का अहसास हुआ और उसने श्रीहरि से क्षमा मांगते हुए कहा कि अब वह क्षणभर भी जीना नहीं चाहती। इस पर श्रीहरि ने उसे अपनी अनन्य भक्ति का वरदान देते हुए कहा, ‘हे वृंदा, तुम मुझे प्राणप्रिय हो। इसलिए तुम्हारा शाप भी मुझे शिरोधार्य है। मेरे आशीर्वाद से तुम सृष्टि की सर्वाधिक हितकारी औषधि ‘तुलसी’ के रूप में जानी जाओगी और मेरे पाषाण स्वरूप ‘शालिग्राम’ से तुम्हारा मंगल परिणय संसारवासियों के प्रसन्नता का निमित्त बनेगा।
इस दिन महिलाओं को पूरी विधि विधान के साथ तुलसी विवाह की पूजन करना चाहिए, तुलसी मां को श्रृंगार की पूरी साम्रगी चढ़ाना चाहिए। पूजा के बाद बिंदी और सिंदूर खुद के लिए रखना चाहिए। चढ़ाई गई चुड़ियों को सुहागिन महिलाओं में बांटना चाहिए। तुलसी विवाह पूजन हर सुहागिन महिलाओं के महत्वपूर्ण होती है।