एक दौर जिसमें हर युवा मर मिटे राष्ट्र के लिए

युवा अवस्था जिसमें मौज मस्ती होती है, दोस्तों के साथ घूमना फिरना होता है। उम्र का ये पढ़ाव उमंग लेकर आता है, जिसे हर कोई खुलकर जीना पसंद करता है, पर कुछ लोग थे हमारी धरती पर जिन्होंने मौज मस्ती से परे अपने लिए अलग दुनिया का चुनाव किया। लड़ गए देश के लिए और बलिदान कर दिया प्राणों का। शहीद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु अपनी जिंदगी के सबसे खास पढ़ाव में हसते-हसते फांसी पर लटक गए। उन्हीं की याद में हम हर साल 23 मार्च को शहीद दिवस के रूप में मनाते हैं।

23 साल की उम्र क्या होती है, उम्र के इस पढ़ाव में एक युवक की ऐसी सोच की उसे तो बस देश की सेवा करना है, और जरुरत पड़ने पर मर मिटना है। भगत सिंह ने 6 साल की उम्र से ठान लिया था की वे देश के लिए जीएंगे। 13 अप्रैल 1919 को हुए जलियावाला बाग हत्याकांड का उनके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा था। भगत सिंह का जन्म 27 सिंतबर 1907 को लायलपुर जिले के बंगा में हुआ था, जो अब पाकिस्तान में है।देश के विभाजन के बाद उनका परिवार पंजाब के खट्कड़ कलां गांव में आकर रहने लगा। भगत सिंह को क्रांतिकारी संस्कार उनके परिवार से ही मिले थे, उनके जन्म के समय उनके पिता किशन सिंह और चाचा अजित और स्वरण सिंह जेल में थे। उन्हें 1906 में लागू किए औपनिवेशीकरण विधेयक के खिलाफ प्रदर्शन करने पर जेल में डाला गया था। भगत सिंह की माता का नाम विद्यावती था। भगत सिंह करतार सिंह सराभा और लाला लाजपत राय से अत्याधिक प्रभावित रहे।

लाहौर के नेशनल कॉलेज की पढ़ाई छोड़कर भगत सिंह ने 1920 में महात्मा गांधी के चलाए जा रहे अहिंसा आंदोलन में शामिल हो गए, और विदेशी सामानों का बहिष्कार करने लगे। 14 वर्ष की आयु में उन्होंने सरकारी स्कूलों की पुस्तकें और कपड़े जला दिए, इसके बाद उनके पोस्टर गांव-गांव में छपने लगे। आगे जाकर भगत सिंह चन्द्रशेखर आजाद के नेतृत्व में गठित हुई गदर दल का हिस्सा बने। 9 अगस्त 1925 को शाहजहांपुर से लखनऊ के लिए चली 8 नंबर डाउन पैसेंजर से काकोरी नामक स्टेशन पर सरकारी खजाने को लूट लिया। यह घटना काकोरी कांड के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है। इस घटना का अंजाम देने वालों में भगत सिंह, रामप्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद थे।

8 अप्रैल 1929 को अंग्रेजी सरकार को जगाने के लिए भगत सिंह ने क्रांतिकारी साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर अलीपुर रोड दिल्ली स्थित ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सेंट्रल असेंबली के सभागार में बम और पर्चे फेंके और इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाए। इसके बाद 23 मार्च 1931 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दे दी गई। भगत सिंह को लिखने का बहुत शौक था, जेल में उन्होंने कई लेख लिखे। फांसी पर जाने से पहले वे बिस्मिल की जीवनी पढ़ रहे थे।

अंग्रेजों के अत्याचार का ये दौर ऐसा था जहां हर युवा मर मिटने को तैयार था। राष्ट्रहित के लिए लड़ना जरुरी भी है, भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव आज हमारे बीच तो नहीं है, पर उनकी कहानी हर युवा के लिए प्रेरणा है। राष्ट्रहित से बढ़कर जीवन में कुछ होना भी नहीं चाहिए।