Friday, September 20, 2024
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जानिए उस महान क्रांतिकारी को जिसने कहा “मैं आजाद हूं और आज़ाद ही रहूँगा” 

देश को अंग्रेजों की गुलामी से आज़ाद करवाने के लिए भारत माता के कई वीर सपूतों (Chandra Shekhar Azad) ने अपने प्राण नौछावर कर दिए। किसी ने आज़ादी को अपनी दुल्हन माना तो किसी ने पूर्ण स्वराज का नारा दिया। इन्ही आज़ादी के मतवाले देशों भक्तों में चंद्रशेखर आज़ाद (Chandra Shekhar Azad) का नाम किसी परिचय का मोहताज़ नहीं है। चंद्रशेखर आज़ाद (Chandra Shekhar Azad) एक ऐसे क्रांतिकारी थे जिन्होंने पूरी ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ-साथ इंग्लिश्तान की राजशाही की नाक में दम करके रख दिया था। चंद्रशेखर आज़ाद (Chandra Shekhar Azad) जिनको पकड़ने के लिए अंग्रजों ने अपनी पूरी ताक़त लगा दी थी, लेकिन आज़ादी के इस परवाने को कभी पकड़ न सके।

कौन थे चंद्रशेखर आज़ाद(Chandra Shekhar Azad)


क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद का जन्म 23 जुलाई 1906 को मध्य प्रदेश के अलीराजपुर के छोटे से गाँव भाबरा में हुआ हुआ था। उनके पिता का नाम सीताराम तिवारी व माता का नाम जगरानी देवी था। आज़ाद का परिवार मूल रूप से उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के बदरका गांव से था, लेकिन पिता सीताराम तिवारी की नौकरी चली जाने के कारण उन्हें मध्यप्रदेश के भाबरा जाना पड़ा।

आज़ाद बचपन से ही काफी जिद्दी और विद्रोही स्वभाव के थे। चंद्रशेखर का पूरा बचपन मध्यप्रदेश के आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र भाबरा(झाबुआ) में ही बीता था। यहीं पर उन्होंने स्थानीय आदिवासियों से निशानेबाजी और धनुर्विद्या सिखी और आदिवासी क्रांतिकारी टंट्या भील की कहानियां भी सुनी।

अहिंसा के मार्ग को छोड़(Chandra Shekhar Azad) बने क्रान्तिकारी

Chandra Shekhar Azad

आज़ाद ने कम उम्र में ही अंग्रेजों के खिलाफ बगावत शुरू कर दी थी। भगत सिंह की ही तरह जलियांवाला बाग कांड ने चंद्रशेखर आजाद को क्रांति के रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित किया। जलियांवाला बाग की घटना से आजाद को समझ आ गया था कि अंग्रेजों से छुटकारा पाने के लिए बातों की नहीं बल्कि बंदूकों की जरूरत होगी।

सन 1919 में जलियांवाला बाग कांड के दौरान आजाद बनारस में पढ़ाई कर रहे थे। इसके बाद उन्होंने यह तय कर लिया कि वह भी आजादी के आंदोलन में उतरेंगे और फिर महात्मा गांधी के आंदोलन से जुड़ गए। साल 1921 में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से जुड़ने के बाद उनकी गिरफ्तारी हुई। चंद्रशेखर को 15 कोड़े मारने की सजा भी सुनाई गयी। लेकिन तभी महत्ता गांधी ने चौरा-चोरी कांड के बाद आंदोलन वापस ले लिया और आज़ाद अहिंसा छोड़ चल पडे क्रांति के रास्ते पर।

बनाया अपना क्रांतिकारी दल

Chandra Shekhar Azad
चंद्रशेखर आज़ाद बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पढ़ते थे और संयोगवश बनारस भी उन दिनों भारत में क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र था। बनारस में ही आज़ाद दूसरे क्रांतिकारी मन्मथनाथ गुप्त और प्रणवेश चटर्जी के संपर्क में आए। यहीं से उन्हें क्रांतिकारी दल ‘हिन्दुस्तान प्रजातंत्र संघ’ के एक सदस्य के रूप में नै पहचान मिली।

राम प्रसाद बिस्मिल इस दल के के प्रमुख नेता थे। इस दल का उद्देश्य केवल सरकारी प्रतिष्ठानों को नुकसान पहुंचा कर अपनी क्रांति के लक्ष्यों को प्राप्त करना था। दल ने पूरे देश को अपना उद्देश्य बताने के लिए अपना मशहूर पैम्फलेट ‘द रिवोल्यूशनरी’ प्रकाशित किया।

काकोरी कांड से इतिहास के पन्नों में छोड़ी अपनी स्वर्णिम छाप


रामप्रसाद बिस्मिल को पता चला कि लखनऊ से ट्रेन के द्वारा दूसरे अंग्रेज स्टेशनों पर बांटने के लिए लगभग 30 हजार रुपये ले जाए जा रहें हैं। इस अंग्रेजों के सरकारी खजाने को लूटने की योजना पर काम शुरू हुआ। पुरे अभियान की जिम्मेदारी आजाद को मिली। योजना के मुताबिक काकोरी स्टेशन से कुछ दूरी पर जंजीर खींचकर ट्रेन को रोककर और उससे अंग्रेजी खजाने को लूटा गया।

काकोरी की घटना के बाद इसमें शामिल क्रांतिकारियों की धरपकड़ तेज हो गई। लेकिन चंद्रशेखर आज़ाद को पकड़ना अंग्रेजों के बस के बाहर था। वह हर बार पुलिस को चकमा देकर बच निकलते थे। आजाद कभी भी एक स्थान पर लम्बे समय तक नहीं रुकते थे,वो हर थोड़े समय के बाद अपनी रहने की जगह बदल देते थे और भेष बदलने में तो वह गजब के माहिर थे।

भगत सिंह के साथ मिलकर बनाया नया दल


काकोरी कांड के बाद “हिन्दुस्तान प्रजातंत्र संघ” दल के ज्यादातर सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया गया और दल बिखर गया। इसके बाद आजाद के सामने एक बार फिर दल खड़ा करने का संकट आ गया। हालांकि, अंग्रेज सरकार आजाद को पकड़ने की कोशिश में लगी हुई थी। इसलिए आज़ाद छिपते-छिपाते दिल्ली पहुंच गए।

दिल्ली पहुँच कर आज़ाद ने फिरोजशाह कोटला मैदान में सभी बचे हुए क्रांतिकारियों की गुप्त सभा आयोजित की। इस सभा में आजाद के साथ ही महान क्रांतिकारी भगतसिंह और राजगुरु, सुखदेव भी शामिल हुए थे। इस सभा में तय किया कि दल में नए सदस्य जोड़े जाएंगे और इसे एक नया नाम दिया जाएगा। चंद्रशेखर आज़ाद के इस दल को ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ नाम दिया गया। साथ ही सर्वसम्मति से इस नए दल का कमांडर-इन-चीफ आजाद को बनाया गया।

सेंडर्स की हत्या ने बदला समीकरण
इस नए संगठन ने कई ऐसी गतिविधियां की जिससे अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिलाकर रख दी। इसी दौरान साल 1928 में साइमन कमीशन के खिलाफ प्रदर्शन के करते हुए लाला लाजपत राय की मौत हो गई। तब इस दल ने उनकी मौत का बदला लेने का फैसला किया। इसके बाद भगत सिंह, सुखदेव ,राजगुरु के साथ अन्य क्रांतिकारियों ने 17 दिसंबर, 1928 को लाहौर के पुलिस अधीक्षक जेपी सेंडर्स के दफ्तर को घेर लिया और राजगुरु ने सेंडर्स पर गोली चला दी, जिससे उसकी मौत हो गई।

क्रांतिकारियों ने असेंबली में फोड़ा बम


आयरिश क्रांति से प्रभावित भगत सिंह ने दिल्ली असेंबली में बम फोड़ने का निश्चय किया, जिसमें आजाद ने उनका साथ दिया। इन घटनाओं के बाद अंग्रेज सरकार ने इन क्रांतिकारियों को पकड़ने में पूरी ताकत लगा दी और आरोप में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा सुनाई गई।

इससे आजाद काफी आहत हुए और उन्होंने भगत सिंह को छुड़ाने की कोशिश की, लेकिन वे सफल नहीं हो सके। दल के लगभग सभी लोग गिरफ्तार हो चुके थे, लेकिन फिर भी काफी समय तक चंद्रशेखर आजाद ब्रिटिश सरकार को चकमा देते रहे। आजाद ने ठान ली थी कि वो जीते जी अंग्रेजों के हाथ नहीं लगेंगे।

मैं आजाद हूं और आज़ाद ही रहूँगा 


खुद को आज़ाद कहने वाले चंद्रशेखर हमेशा आज़ाद ही रहे। एक दिन आज़ाद अपने एक साथी से मिलने इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में पहुंचे. तभी किसी ने पुलिस को इसकी सूचना दे दी। आज़ाद को अंग्रेजी पुलिस ने चोरों ओर से घेर लिया था। तब उन्होंने अपने साथी को वहां से सुरक्षित बाहर निकला। इस दौरान दोनों और से कई गोलियां दागी गईं। उन्ही में से एक गोली आज़ाद के पैर में लगी। आज़ाद ने भी गोलियों का जबाब गोली से देते हुए कर अंग्रेज अफसरों को घायल किया। आज़ाद हमेशा एक गोली अपनी बांह पर बांध कर रखते थे, जब आज़ाद की गोलियां ख़त्म हो गयीं तोह उन्होंने बांह पर बंधी गोली से खुद को ख़त्म कर लिया और हमेशा आज़ाद ही रहे।

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