पांडवों को पाप मुक्त करने प्रकट हुए “केदारनाथ” त्रिकोण आकार है शिवलिंग

शिवपुराण के अनुसार 12 ज्योतिर्लिंग हैं। जिसमें से पांचवां ज्योतिर्लिग केदारनाथ है। जिसे केदारेश्वर भी कहा जाता है। यह तीर्थ स्थल चार धामों में से एक है। यह उत्तराखंड राज्य में स्थित है। इसके पश्चिम की ओर मन्दाकिनी नदी बहती है।

उत्तराखंड के चार धाम गंगोत्री, यमनोत्री, बद्रीनाथ और केदारनाथ हैं। जिसमें केदारनाथ का बड़ा महत्त्व है। यह पावन तीर्थ स्थल मनमोहक पहाड़ियों से घिरा हुआ है। इस ज्योतिर्लिंग से जुडी दो कथाएं प्रचलित हैं। एक महाभारत और दूसरी कथा शिवपुराण में वर्णित है। पहले हम शिवपुराण में वर्णित कथा को जानते हैं।

शिवपुराण में केदारनाथ कथा

भगवान ब्रह्मा के पुत्र धर्म और उसकी पत्नी मूर्ती के दो पुत्र हुए थे। जिनका नाम नर और नारायण था। इन्ही नर और नारायण ने द्वापर युग में श्री कृष्ण और अर्जुन का अवतार लिया था और धर्म की स्थापना की थी। ये दोनों ही पुत्र नर और नारायण बद्रीवन में स्वयं के द्वारा बनाये गए पार्थिव शिवलिंग के सम्मुख घोर तप किया करते थे। शिव जी उन दोनों बालक से प्रसन्न होकर उनके द्वारा बनाये गए शिवलिंग में प्रतिदिन समाहित हुआ करते थे। एक दिन नर और नारायण की इस घोर तपस्या से प्रसन्न होकर शिव जी वहां प्रकट हुए। शिव जी ने उन बालकों से कहा कि मैं तुम दोनों की तपस्या से अति प्रसन्न हूँ। जो भी वर माँगना चाहते हो मांग सकते हो।

तब दोनों बालकों ने भगवान शिव जी से विनती की कि हे प्रभु ! आप तीनों लोकों का कल्याण करने वाले हैं अर्थात हम सभी के कल्याण हेतु आप यहाँ सदा के लिए लिंग रूप में विराजमान हो जाईए। आज उसी केदार खंड क्षेत्र में शिव जी साक्षात विद्यमान हैं। वहां दो पहाड़ भी हैं जिनका नाम नर और नारायण है। ऐसा माना जाता है कि केदारनाथ की तीर्थयात्रा करते समय यदि किसी की मृत्यु हो जाती है तो उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।

केदारनाथ की महाभारत से जुड़ी कहानी

कुरुक्षेत्र युद्ध के दौरान पांडवों ने अपने ही गोत्र के लोगों को मारा था। जिससे शिव भगवान अत्यंत क्रोधित थे। पांडवों को जब इस बात का पता चला तो वे पाप मुक्त होने के लिए केदारनाथ शिव जी के दर्शन के लिए गए। शिव जी अपने दर्शन उन्हें नहीं देना चाहते थे क्योंकि वे अत्यंत क्रोधित थे। इसीलिए शिव जी ने अपना भेष बदल लिया। वे बैल का रूप धारण करके पशुओं के झुण्ड में साथ चल दिए। लेकिन भीम ने भगवान शिव को पहचान लिया और उनका पीछा करने लगे। शिव जी को पीछे से पकड़ने के लिए वे भागे। लेकिन भीम केवल शिव जी का पीछे का हिस्सा (कूबड़) ही पकड़ पाए। क्योंकि शिव जी जमीन में धंसने लगे थे। वह कूबड़ यानि कि पृष्ठभाग जमीन के ऊपर ही रह गया था। पांडव बहुत दुखी हुए। तब पांडवों ने वहां तपस्या की। तपस्या से शिव जी प्रसन्न हुए और आकाशवाणी की कि उसी पृष्ठभाग की पूजा अर्चना की जाये और पांडवों को श्रापमुक्त कर दिया। तब से ही उसी पृष्ठभाग को केदारनाथ के रूप में जाना जाता है।

अमृतकुंड

मंदिर के पीछे एक कुंड है जिसे अमृतकुंड कहते हैं। जिसका जल पीने से लोग रोग मुक्त हो जाते हैं। मुख्य मंदिर की बायीं तरफ किनारे पर एक शिव भगवान की मूर्ति है और मुख्य मंदिर से आधा किलोमीटर की दूरी पर भैरव जी का मंदिर है। ऐसा कहा जाता है कि जब मंदिर के कपाट बंद रहते हैं तब भैरव जी मंदिर की रक्षा करते हैं।

मंदिर के ठीक पीछे एक छोटा मंदिर है। वहां शंकराचार्य की समाधी है। ऐसा कहा जाता है कि शंकराचार्य ने चार धामों की स्थापना करने के पश्चात 32 वर्ष की आयु में उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया था। इसी क्षेत्र में एक गौरी कुंड भी है। जहाँ शिव-पार्वती जी का मंदिर है। मौसम के बदलाव की बजह से यह मंदिर अक्षय तृतीया (अप्रैल महीने का अंत) से लेकर कार्तिक पूर्णिमा (नवंबर) तक खुला रहता है। ऐसा कहा जाता है कि यह मंदिर पांडवों द्वारा निर्मित है।यह मंदिर वास्तुकला पर आधारित है। ऐसी मान्यता है कि यदि आप केवल बद्रीनाथ की यात्रा पर जाते हैं और केदारनाथ के दर्शन किये बिना वापस आ जाते हैं तो आपकी यात्रा अधूरी रहती है। केदारनाथ ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने के साथ – साथ नर और नारायण के दर्शन करना भी जरुरी है। सत युग में उपमन्यु ने यहाँ भगवान शिव की आराधना की थी।

मंदिर के अंदर पहले हॉल में पांच पांडव, कृष्ण भगवान, शिव भगवान का वाहन नंदी, वीरभद्र शिव जी का संरक्षक, द्रौपदी और कई देवी – देवताओं की मूर्तियां हैं। सनातन धर्म में केदारनाथ को अद्भुत ऊर्जा का केंद्र माना गया है। पहाड़ियों से घिर केदारनाथ तीर्थ की महिमा बड़ी निराली है। यहां पांच नदियों मंदाकिनी, मधुगंगा, क्षीरगंगा, सरस्वती और स्वर्णगौरी का संगम होता है। जिसमें अब कुछ नदियों का अस्तित्व खत्म हो गया है यह तीर्थ स्थल अपने आप में ही एक अद्भुत स्थान है। केदारनाथ ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने मात्र से ही भक्तगणों के संकट दूर हो जाते हैं।