क्या है सोमनाथ ज्योतिर्लिंग का रहस्य? जानिए पूरी कहानी

ज्योतिर्लिंग का अर्थ  है – ‘स्तंभ या प्रकाश का स्तंभ’। ‘स्तंभ’ एक प्रतिक है जो कि, दर्शाता है कोई शुरुआत या अंत नहीं है। एक बार की बात है ब्रह्मा जी और भगवान विष्णु के बीच इस बात पर बहस हुई कि सर्वोच्च देवता कौन है। इस बहस का अंत नही हो रहा था। तभी भगवान शिव प्रकाश स्तंभ के रूप में प्रकट हुए।

भारत में 12 ज्योतिर्लिंगों में सबसे पवित्र सोमनाथ ज्योतिर्लिंग है। देवो के देव महादेव यानी भगवान शिव को समर्पित यह भव्य सोमनाथ मंदिर भारत के पश्चिम राज्य गुजरात के सौराष्ट्र में स्थित है। यह मंदिर जिस भूभाग पर स्थित है। उसे प्रभास पाटन के नाम से जाना जाता है। भारत के सबसे प्राचीन वेद ऋग्वेद में बताया गया है कि, इस मंदिर का निर्माण सोमदेव या चंद्रदेव नामक राजा ने किया था।

इन्ही के नाम से इस मंदिर का नाम सोमनाथ पड़ा। गुजरात के गिर सोमनाथ जिले में स्थित यह मंदिर अरब सागर के किनारे स्थित है। यह अध्यात्म और प्रकृति का मिलन स्थल है। इसके अलावा इस जगह पर तीन पौराणिक नदियो सरस्वती, हिरण्य और कपिला का संगम स्थल है। जिसे त्रिवेणी संगम कहा जाता है। यही नही पौराणिक मान्यताओ के अनुसार भगवान श्री कृष्ण ने अंतिम समय में इसी स्थान पर अपने शारीर को त्यागा था। तो जानते है सोमनाथ ज्योतिर्लिंग से जुडी पौराणिक कहानी

जब प्रजापति दक्ष ने अपनी सभी सत्ताइस पुत्रियों का विवाह चंद्रदेव के साथ कर दिया, तो वे बहुत प्रसन्न हुए। पत्नी के रूप में दक्ष कन्याओं को प्राप्त कर चंद्रदेव बहुत शोभित हुए और दक्षकन्याएँ भी अपने स्वामी के रूप में चंद्रदेव को प्राप्त कर सभी कन्याएं भी इस विवाह से प्रसन्न थी। चन्द्र की उन सत्ताइस पत्नियों में रोहिणी उन्हें सबसे ज्यादा प्रिय थी, जिसको वे विशेष आदर तथा प्रेम करते थे। उनका इतना प्रेम अन्य पत्नियों से नहीं था। चन्द्र की अपनी तरफ उदासीनता और उपेक्षा का देखकर रोहिणी के अलावा बाकी दक्ष पुत्रियां बहुत दुखी हुई। वे सभी अपने पिता दक्ष की शरण में गयीं और उनसे अपने कष्टों का वर्णन किया।

अपनी पुत्रियों की व्यथा और चंद्रदेव के दुर्व्यवहार को सुनकर दक्ष भी बड़े दुःखी हुए। उन्होंने चंद्रदेव से भेंट की और शान्तिपूर्वक कहा: कलानिधे! तुमने निर्मल व पवित्र कुल में जन्म लिया है, फिर भी तुम अपनी पत्नियों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार करते हो। तुम्हारे आश्रय में रहने वाली जितनी भी स्त्रियाँ हैं, उनके प्रति तुम्हारे मन में प्रेम कम और अधिक, ऐसा सौतेला व्यवहार क्यों है? तुम किसी को अधिक प्रेम करते हो और किसी को कम, ऐसा क्यों करते हो? अब तक जो व्यवहार किया है, वह ठीक नहीं है, फिर अब आगे ऐसा दुर्व्यवहार तुम्हें नहीं करना चाहिए। जो व्यक्ति आत्मीयजनों के साथ विषमतापूर्ण व्यवहार करता है, उसे नर्क में जाना पड़ता है।

इस प्रकार प्रजापति दक्ष ने अपने दामाद चंद्रदेव को प्रेमपूर्वक समझाया और चंद्रदेव में सुधार हो जाएगा ऐसा सोच, प्रजापति दक्ष वापस लौट आए।

इतना समझाने पर भी चंद्रदेव ने अपने ससुर प्रजापति दक्ष की बात नहीं मानी। रोहिणी के प्रति अतिशय आशक्ति के कारण उन्होंने अपने कर्त्तव्य की अवहेलना की तथा अपनी अन्य पत्नियों का कुछ भी ख्याल नहीं रखा और उन सभी से उदासीन रहे। दुबारा समाचार प्राप्त कर प्रजापति दक्ष बड़े दुःखी हुए। वे पुनः चंद्रदेव के पास आकर उन्हें उत्तम नीति के द्वारा समझने लगे। दक्ष ने चंद्रदेव से न्यायोचित बर्ताव करने की प्रार्थना की। बार-बार आग्रह करने पर भी चंद्रदेव ने अवहेलनापूर्वक जब दक्ष की बात नहीं मानी, तब उन्होंने चंद्रदेव को शाप दे दिया। दक्ष ने कहा कि मेरे आग्रह करने पर भी तुमने मेरी अवज्ञा की है, इसलिए तुम्हें क्षयरोग हो जाय।

दक्ष द्वारा शाप देने के साथ ही क्षण भर में चंद्रदेव क्षय रोग से ग्रसित हो गये। उनके क्षीण होते ही सर्वत्र हाहाकार मच गया। सभी देवगण तथा ऋषिगण भी चिंतित हो गये। परेशान चंद्रदेव ने अपनी अस्वस्थता तथा उसके कारणों की सूचना इन्द्र आदि देवताओं तथा ऋषियों को दी। उसके बाद उनकी सहायता के लिए इन्द्र आदि देवता तथा वसिष्ठ आदि ऋषिगण ब्रह्माजी की शरण में गये। ब्रह्मा जी ने उनसे कहा कि जो घटना हो गई है, उसे तो भुगतना ही है, क्योंकि दक्ष के निश्चय को पलटा नहीं जा सकता। उसके बाद ब्रह्माजी ने उन देवताओं को एक उत्तम उपाय बताया।

ब्रह्माजी ने कहा कि चंद्रदेव देवताओं के साथ कल्याण कारक शुभ प्रभास क्षेत्र में चले जायें। वहाँ पर विधिपूर्वक शुभ मृत्युंजय मंत्र का अनुष्ठान करते हुए श्रद्धापूर्वक भगवान शिव की आराधना करें। अपने सामने शिवलिंग की स्थापना करके प्रतिदिन कठिन तपस्या करें। इनकी आराधना और तपस्या से जब भगवान भोलेनाथ प्रसन्न हो जाएँगे, तो वे इन्हें क्षय रोग से मुक्त कर देगें। पितामह ब्रह्माजी की आज्ञा को स्वीकार कर देवताओं और ऋषियों के संरक्षण में चंद्रदेव देवमण्डल सहित प्रभास क्षेत्र में पहुँच गये।

वहाँ चन्द्रदेव ने मृत्युंजय भगवान की अर्चना-वन्दना और अनुष्ठान प्रारम्भ किया। वे मृत्युंजय मंत्र का जप तथा भगवान शिव की उपासना में तल्लीन हो गये। ब्रह्मा की ही आज्ञा के अनुसार चंद्रदेव ने छः महीने तक निरन्तर तपस्या की और वृषभ ध्वज का पूजन किया। दस करोड़ मृत्यंजय मंत्र का जप तथा ध्यान करते हुए चंद्रदेव स्थिरचित्त से वहाँ निरन्तर खड़े रहे। उनकी तपस्या से भक्त-वत्सल भगवान शंकर प्रसन्न हो गये। उन्होंने चंद्रदेव से कहा: चन्द्रदेव! तुम्हारा कल्याण हो। तुम जिसके लिए यह कठोर तप कर रहे हो, उस अपनी अभिलाषा को बताओ। मै तुम्हारी इच्छा के अनुसार तुम्हें उत्तम वर प्रदान करूँगा। चंद्रदेव ने प्रार्थना करते हुए विनयपूर्वक कहा: देवेश्वर! आप मेरे सब अपराधों को क्षमा करें और मेरे शरीर के इस क्षयरोग को दूर कर दें।

भगवान शिव ने तपस्या से प्रसन्न होकर चन्द्रदेव से वर मांगने के लिए कहा: इस पर चन्द्रदेव ने वर मांगा कि हे भगवान आप मुझे इस श्राप से मुक्त कर दीजिए और मेरे सारे अपराध क्षमा कर दीजिए। इस श्राप को पूरी से समाप्त करना भगवान शिव के लिए भी सम्भव नहीं था। अतः मध्य का मार्ग निकाला गया। चन्द्रदेव! तुम्हारी कला प्रतिदिन एक पक्ष में क्षीण हुआ करेगी, जबकि दूसरे पक्ष में प्रतिदिन वह निरन्तर बढ़ती रहेगी। इस प्रकार तुम स्वस्थ और लोक-सम्मान के योग्य हो जाओगे। भगवान शिव का कृपा रूपी प्रसाद प्राप्त कर चन्द्रदेव बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने भक्ति भावपूर्वक शंकर की स्तुति की। ऐसी स्थिति में निराकार शिव उनकी दृढ़ भक्ति को देखकर साकार लिंग रूप में प्रकट हुए और संसार में सोमनाथ ज्योतिर्लिंग के नाम से प्रसिद्ध हुए।

कहा जाता है की चंद्रदेव की भक्ति से प्रसन्न हो भगवान् शिव ने उन्हें अपने माथे पर धारण किया तभी से शिवजी को चंद्रमौली व् चन्द्रशेखर भी कहा जाने लगा।